Santulit Aahar Swasth Jeewan Ka Aadhar
संतुलित जीवन (Santulit Jeevan) के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने कुछ मौलिक नियमों का प्रतिपादन किया है। उनका कथन है कि इन मौलिक नियमों का पालन करने से ही मनुष्य आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होकर लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। इन नियमों की अवहेलना करके वह अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। संतुलित जीवन के लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य यथायोग्य आहार करे, समयानुसार जागरण करे, प्रतिदिन अपने कार्यक्रम का नियमानुसार पालन करे और निरासक्त भाव से कार्य-व्यवहार करता हुआ संसार में विचरण करे।
भगवान श्रीकृष्ण के वचन हैं कि -
अधिक खाना या न खाना, नहीं योग का है यह विधान।
अधिक शयन या अधिक जागरण, उचित नहीं योगी का जान।।
सचेष्ट रहे यथायोग्य कर्म में, यथायोग्य करे जो आहार।
सिद्ध होता है योग उसी का, जो सोये जागे समयानुसार।।
हे अर्जुन! बहुत अधिक खाने या बिल्कुल न खाने से योग सिद्ध नहीं होता। बहुत अधिक सोने या अधिक जागरण से भी योग की प्राप्ति सम्भव नहीं है। यह दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कार्यां में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य शयन करने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।
महापुरूषों का उपदेश है कि साधक को न तो अधिक खाना चाहिये और न ही उपवास आदि रखकर अपने शरीर को सुखाना चाहिये क्योंकि भरपेट खाने से नींद और आलस्य बढ जाते है, साथ ही पचाने की शक्ति से अधिक अन्न पेट में पहुंचकर विकार और रोग पैदा करता है।
इसके विपरीत अन्न का सर्वथा त्याग करके इन्द्रिय, प्राण, और मन की शक्ति का ह्रास हो जाता है। ऐसी स्थिति में तो वह आत्मकल्याण हेतु साधना में तत्पर ही नहीं हो सकता। इसलिये उसे अपने शरीर की स्थिति, प्रकृति तथा स्वास्थ्य के अनुसार सात्विक, शुद्ध, सुपाच्य तथा हितकर भोजन करना चाहिये।
आध्यात्मिक जीवन के विकास में आहार का विशेष स्थान है। आहार शुद्धौ सत्वशुद्धिः - अर्थात् शुद्ध सात्विक आहार से बुद्धि शुद्ध होती है। शरीर, मन तथा बुद्धि से आत्मा का घनिष्ठ सम्बन्ध है। इन तीनों के स्वास्थ्य अथवा अस्वास्थ्य का आध्यात्मिक विकास पर प्रभाव पडता है।
अतः आत्मिक विकास के लिये सदैव सात्विक भोजन ही करना चाहिये। सात्विक भोजन के विषय में भगवान श्रीकृष्ण के वचन हैं -
जो आरोग्य आयु व बुद्धि, शक्ति सुख और प्रीति बढाये।
ऐसा रसल चिकना प्रिय स्थिर, भोजन सात्विक जन को भाऐ।।
सात्विक भोजन रसयुक्त, चिकना, स्थिर रहने वाला तथा स्वास्थ्यप्रद होता है। उसमें आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति बढाने का प्रभाव होता है। ऐेसे पदार्थों का प्रयोग करने वाले बुद्धिमान और मेधावी होते हैं।
इसके अतिरिक्त साधक को न तो अधिक सोना चाहिये और न बिल्कुल जागरण ही करना चाहिये। आवश्यकता से अधिक सोने से तमागुण और आलस्य बढता है जो आत्मा की उन्नति में सबसे बढकर विघ्नकारी है।
मानव जीवन का अमूल्य समय निद्रा एवं आलस्य में नष्ट करने के लिये नहीं मिला, अपितु महान लक्ष्य की पूर्ति के लिये मिला है। शयन भी एक उद्देश्य से होता है, परन्तु उस उद्देश्य की पूर्ति के उपरान्त निद्रा करना अपनी जीवन डोर को चूहों द्वारा कुतरने के लिये छोडने के तुल्य है।
दूसरी ओर अधिक जागने से भी थकावट बनी रहती है। शरीर, इन्द्रिय तथा प्राण शिथिल हो जाते हैं तथा हर समय नींद और आलस्य सताया करते हैं, जिससे भजन-अभ्यास में मन नहीं लगता। इसलिये साधक को अपने शरीर की स्थिति और प्रकृति के अनुकूल शयन व जागरण की व्यवस्था कर लेनी चाहिये और पूर्ण शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करना चाहिये।
अन्य कार्यों में भी साधक को उतना ही प्रवृत्त होना चाहिये जिससे कि उसकी साधना में विघ्न पैदा न हो और ध्यान-अभ्यास के लिये भी आवश्यकतानुसार उसे पर्याप्त समय मिल जाये। उसे अनेकों प्रवृत्तियों में पडकर अपनी शक्तियों का अपव्यय नहीं करना चाहिये, अपितु मन की विकीर्ण किरणों अथवा वृत्तियों को एकाग्र करके ईश्वर के चिंतन और ध्यान में लगाना चाहिये।
महापुरूषों का कथन है कि आहार, व्यवहार व विचार इनका परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है। सात्विक आहार से व्यवहार और विचार शुद्ध होते हैं। व्यवहार कहते हैं - परस्पर का सम्बन्ध, बात-चीत, लेन-देन आदि के व्यापारों को। व्यवहार के शुद्ध होने पर विचार भी शुद्ध होते हैं।
जिसका व्यवहार शुद्ध नहीं, उसके विचार भी मलिन होंगे। जिसका व्यवहार गलत है, उसका परमार्थ भी ठीक नहीं हो सकता। परमार्थ पर ठीक तरह से चलने के लिये आवश्यक है कि अपने व्यवहार को ठीक किया जाये। सत्य-भाषण, सभ्यतापूर्वक बातचीत व रहन-सहन, स्वार्थ रहित कार्य करना, निन्दा - चुगली न करना, सेवा-भाव आदि ये सदाचरण के लक्षण हैं।
मानसिक संतुलन के लिये उत्तम विचारों का होना भी आवश्यक है। जिसका आहार-व्यवहार ठीक है उसके विचार भी श्रेष्ठ होंगे। शुभ व शुद्ध विचारों से ही मन को परास्त किया जा सकता है। आहार, व्यवहार और विचार - इन तीनों के शुद्ध होने पर ही मानसिक संतुलन प्राप्त कर मनुष्य निष्काम कर्म में प्रवृत्त हो सकता है और भजन-अभ्यास व परमार्थ के पथ पर सफलता प्राप्त कर सकता है।।
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